प्राणायाम के प्रकार | Types of Pranayama in Hindi – प्राणायाम से जीवन में संतुलन आता है एवं आत्मशक्ति का विकास होता है। महर्षि घेरण्ड ने प्राणायाम के निम्नलिखित भेद बताए है।
सहितः सूर्यभेदश्च उज्जायी शीतली तथा।
भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्टकुम्भकाः ।। घे.सं. 5/4611
Table of Contents
- 1. सहित कुम्भक प्राणायाम (Sahit Kumbhak Pranayama in Hindi) :
- 2. सूर्य भेदी प्राणायाम (Surya Bhedee Pranayama in Hindi) :
- 3. भ्रामरी प्राणायाम (Bhraamari Pranayama in Hindi) :
- 4. उज्जायी प्राणायाम (Ujjayi Pranayama in Hindi) :
- 5. मूर्च्छा प्राणायाम (Murchha Pranayama in Hindi) :
- 6. शीतली प्राणायाम (Sheetali Pranayama in Hindi) :
- 7. भस्त्रिका प्राणायाम (Bhastrika Pranayama in Hindi) :
- 8. केवली प्राणायाम (Kevali Pranayama in Hindi) :
प्राणायाम के आठ कुम्भक प्राणायाम है। सहित कुम्भक दो प्रकार का होता है:
- सहित कुम्भक प्राणायाम
- सूर्य भेदी प्राणायाम
- भ्रामरी प्राणायाम
- उज्जायी प्राणायाम
- मूर्च्छा प्राणायाम
- शीतली प्राणायाम
- भस्त्रिका प्राणायाम
- केवली प्राणायाम
1. सहित कुम्भक प्राणायाम (Sahit Kumbhak Pranayama in Hindi) :
सहित कुम्भक दो प्रकार का होता है:-
- सगर्भ
- निगर्भ
A. सगर्भ :-
महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि सुखासन की अवस्था में उत्तर या पूर्व की तरफ मुख करके बैठे एवं लाल वर्ण के रजोगुण युक्त ब्रह्मा का ध्यान करें। अब बाएँ स्वर से अं बीज का सोलह बार जप करके पूरक करें। पूरक के बाद और कुम्भक के पहले उड्डियान बंध लगाएँ। अब सतोगुणी उकार बीज रूप कृष्ण वर्ण हरि का ध्यान करें और जप करते हुए चौसठ मात्रा तक कुम्भक करें और तमोगुण युक्त मकार रूपी शुक्लवर्ण के शिवजी के ध्यान के साथ ‘म’ बीज मंत्र जपते हुए रेचक करें।
अब उपरोक्त प्रकार से ही दाई नासिका से पूरक, कुम्भक और बाई नासिका से रेचक करें। बिना तर्जनी और मध्यमा लगाए अनुलोम विलोम अभ्यास करें। सगर्भ कुम्भक में बीज मंत्र का प्रयोग होता है और निगर्भ कुम्भक में बीज मंत्र से अभ्यास नहीं किया जाता।
B. निगर्भ :-
इस प्राणायाम (कुम्भक) में बीज मंत्र का प्रयोग नहीं किया जाता। पूरक, कुम्भक और रेचक वाले प्राणायाम की एक से लेकर सौ तक मात्राएँ होती हैं। इसी प्रकार उत्तम प्राणायाम की बीस मात्राएँ मध्यम की सोलह और अधम की वारह होती है। इस तरह प्राणायाम के तीन अंग होते हैं। अधम प्राणायाम में स्वेद (पसीना) निकलता है, मध्यम से मेरु कम्प होता है और उत्तम द्वारा पृथ्वी से ऊपर आकाश में विचरण करता है।
इस प्रकार स्वेद निकलना, मेरु कम्प होना और पृथ्वी से ऊपर उठना, ये तीनों ही लक्षण सिद्धि को प्रकट करने वाले हैं। प्राप्त याम के अभ्यास से आकाश गमन, रोगनाशन और कुण्डलिनी जागरण होता है। प्राणायाम के अभ्यास से पुरुष का मन आनंदित होता है और वह सुखी होता है।
2. सूर्य भेदी प्राणायाम (Surya Bhedee Pranayama in Hindi) :
महत्त्व : सूर्य-भेदन प्राणायाम की विशेषता यह इसकी सभी पूरक (श्वास लेना) क्रियाएँ दाएं नासिका द्वार से की जाती है और रेचक (श्वास छोड़ना) क्रियाएँ द्वार से की जाती है।
पूरक क्रिया में प्राण ऊर्जा पिंगलानाड़ी (सूर्यनाड़ी, जमुना नाड़ी) एवं रेचक क्रिया में प्राण ऊर्जा, इड़ा नाड़ी (चंद्र नाड़ी, गंगा नाड़ी) से प्रवाहित होती है।
विधि :-
सुखासन में बैठ जाइए। बाएं नासिका द्वार को बंद कर दाएँ नासिका द्वार से गहन (दीर्घ) श्वास लीजिए। द्वार बंद कीजिए, कुंभक कीजिए, जालंधर और मूलबंध लगाइए। बंध शिथिल करते हुए बाएँ द्वार से धीरे-धीरे रेचक किया कीजिए। यह एक चक्र हुआ। इस प्रकार क्रमशः 10 चक्र तक बढ़ाइए ।
विशेष :- कुंभक का समय धीरे-धीरे बढ़ाते जाना चाहिए। हठयोग में लिखा है कि कुंभक तब तक करें, जब तक शरीर से पसीना न निकल आए जबकि शुरू-शुरू में ऐसा संभव नहीं होता, इसलिए विवेक पूर्वक ढंग से ही क्रिया करें।
लाभ :-
● पाचन तंत्र मजबूत करता है। क्योंकि दायाँ स्वर इस कार्य में सहायक होता है।
● शरीर में ऊष्णता बढ़ती है। वात और कफ़ का शमन होता है।
● त्वचा विकार ठीक होते हैं।
● झुर्रियाँ मिटती हैं। चेहरे का तेज बढ़ता है।
● साइनस साफ़ और स्वच्छ होते हैं।
● निम्न रक्तचाप में नियमित अभ्यास से लाभ मिलता है।
सावधानियाँ :-
● उच्च रक्तचाप वाले रोगी न करें।
● गर्मी के मौसम में यथासंभव न करें।
3. भ्रामरी प्राणायाम (Bhraamari Pranayama in Hindi) :
अर्थ : भ्रमर का अर्थ ‘भौंरा’ होता है। यह भ्रामरी प्राणायाम इसलिए कहलाता है कि रेचक करते समय जो ध्वनि उत्पन्न होती है वह भौंरे के समान गुंजायमान होती है।
विधि :-
पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में बैठ जाएँ। दोनों नासिका छिद्रों से श्वास लीजिए। दोनों हाथों की तर्जनी अँगुली से कानों के छिद्रों को बंद कीजिए। चाहे तो कुछ देर कुंभक लगा लें। अब भौंरे के समान गुंजन करते हुए धीरे-धीरे रेचक कीजिए। इसके 5 चक्र से 10 चक्र तक करें।
घेरण्ड संहितानुसार –
जब अर्ध-रात्रि व्यतीत हो जाए और जीव-जन्तुओं का शब्द सुनाई न दे, तब एकान्त स्थान में जाकर साधक अपने दोनों हाथों से दोनों कानों को बंद करके पूरक और कुम्भक करें। फिर अंदर की विभिन्न ध्वनियों को शाहिने कान से सुनें। पहले झींगुर की ध्वनि, फिर बाँसुरी की धुन, फिर बादलों के गर्जने की आवाज, फिर झाँझ के बजने की आवाज़, फिर भौरों की गुंजन, घंटे, घड़ियाल, तुरही, भेरी, मृदंग, दुंदभी आदि ध्वनि सुनाई पड़ती है।
इस प्रकार नित्य अभ्यास से विभिन्न प्रकार के नाद सुनाई पड़ने लगते हैं और अनाहत में शब्द ध्वनि होने लगती है। यही अद्भुत ध्वनि है। इसमें जो ज्योति दिखाई देती है, वही ब्रह्म है। जब इसमें मन विलय हो जाता है, तब विष्णु भगवान के परम पद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार भ्रामरी कुम्भक सिद्ध होने पर समाधि की सिद्धी होती है। घेरण्ड जी आगे कहते हैं कि जप से आठ गुना उत्तम ध्यान है ध्यान से आठ गुना तप है तप से आठ गुना संगीत (अनहद् नाद) है एवं इस संगीत (अनहद् नाद) से बढ़कर कुछ नहीं है।
टिप्पणी : इस प्राणायाम को तेज गति से करने पर भ्रमर स्वर की तरह एवं मंद गति से करने पर भ्रामरी स्वर की तरह गुजायमान होता है। इस प्रकार करने से आनंद की अनुभूति होती है।
ध्यान : आज्ञाचक्र पर।
विशेष :-
● गुंजन करते समय आप प्रणव मंत्र ॐ की ध्वनि निकाल सकते हैं।
● मुंह बंद रखें किंतु दाँतों को आपस में न मिलाएँ।
● षण्मुखी मुद्रा के साथ भी कर सकते हैं।
● गुंजन करते समय कई बार दूसरे शब्द भी निकलने लगते है अतः ध्यान रखें।
लाभ :-
● स्वर मधुर होता है और आवाज़ में निर्मलता आती है।
● अनिद्रा रोग दूर होता है। १० आध्यात्मिक लाभ मिलते हैं।
● मानसिक रोग चिड़चिड़ापन, क्रोध, आवेग व तनाव इत्यादि दूर होते हैं।
● उच्च रक्तचाप में लाभ।
● हृदय रोगों को भी लाभ मिलता है।
नोट : कुछ साधक कानों को अंगूठों से बंद करके, तर्जनी को माथे पर, मध्यमा को आँखों पर, अनामिका को नाक के पास एवं कनिष्ठा को मुँह के पास रखकर यह क्रिया करते हैं।
4. उज्जायी प्राणायाम (Ujjayi Pranayama in Hindi) :
नासाभ्यां वायुमाकृष्य मुखमध्ये च धारयेत । हृद्ग्लाभ्या समाकृष्य वायुं वक्त्रे च धारयेत ॥
मुखं प्रक्षाल्य सम्वन्ध कुर्याज्जालन्धरं ततः । आशक्ति कुम्भकं कृत्वा धारयेदविरोधतः ।।
उज्जायी कुम्भकं कृत्वा सर्वकार्याणिसाधयेत् । न भवेत्कफ़रोगश्च क्रूरवायुरजीर्णकम् ॥
आमवातः क्षयः कासो ज्वर: प्लीहा न विद्यते। जरामृत्युविनाशाय चोज्जायीं साधयेन्नरः ।। (घे.सं. 5170-73)
इस प्राणायाम में फुफ्फुस पूरी तरह से फैलता है। छाती का भाग ऊपर उठ जाता है।
विधि : –
प्राणायाम के आसन सिद्धासन या पद्मासन में बैठिए। योगाचार्यों के अनुसार मुख का संयमन करके दोनों नासिका द्वारों से धीरे-धीरे वायु खींचें। वह शब्द करती हुई ग्रीवा (कण्ठ) से लेकर हृदय पर्यंत तक भर जाए बिना आकुलता के कुछ क्षण कृभक करें। तत्पश्चात् बाएँ नासिका द्वार से रेचक करें। जिस समय श्वास भीतर खीचें उस समय छाती फुलाइए।
विशेष : श्वास लेते समय कण्ठ द्वार को संकुचित करें ताकि गले से हल्की ध्वनि उत्पन्न हो तत्पश्चात् मुख का प्रक्षालन करें एवं जालंधर बंध लगाकर निराकुलता पूर्वक यथाशक्ति वायु को धारण करें।
समय : अनुकूलतानुसार / यथाशक्ति पूर्वक करें।
लाभ :-
● जठराग्नि बढ़ाता है। इससे सभी कार्य सिद्ध होते हैं।
● कफ नाशक है।
● हृदय विकार दूर करता है।
● एकाग्रता बढ़ाकर स्मरणशक्ति तेज़ करता है।
● अनिद्रा, मानसिक चिंता एवं उन्मादी रोगियों को लाभ।
● आमवात् क्षयरोग, कास, ज्वर, प्लीहा, दुष्ट वायु आदि रोगों का भी नाश होता है।
● घेरण्डसंहितानुसार इस कुंभक को सिद्ध कर ले तो, जरा-मरण भी नष्ट होते हैं।
5. मूर्च्छा प्राणायाम (Murchha Pranayama in Hindi) :
विधि :-
पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर यह आसन करें ताकि निश्चलता बनी रहे। दोनों हाथ घुटनों पर रखें। आँखें बंद कर सिर को पीछे ले जाते हुए (लगभग 45 अंश का कोण) दोनों नासिका छिद्रों से पूरक करे, अंतकुंभक लगाएँ। मानसिक चिंता त्याग दें और सिर नीचे करते हुए रेचक करें। नेत्र बंद भी हों तो उनसे भ्रूमध्य (दोनों भौहों के बीच) देखने की कोशिश करिये। शरीर व मन के प्रति सजग रहिए। इसी अभ्यास की पुनरावृत्ति कीजिए। कम से कम 5 बार करें या अनुकूलतानुसार करें।
घेरण्ड संहितानुसार पहले सुखपूर्वक पूर्व में कहे हुए कुम्भक करके विषय ध्यान वासनाओं से मन को हटाकर दोनों भौहों के बीच में स्थित आज्ञा चक्र में ध्यान लगाएँ और इस पद्य में स्थित परमात्मा में लीन कर दें इसे मूर्च्छा कुंभक कहते है। इस कुम्भक से आनंद की प्राप्ति होती है।
लाभ :-
● मानसिक चिंताग्रस्त व्यक्ति को अथवा मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने की अवस्था में सुख लाभ महसूस होता है।
● सिर दर्द सम्बंधित रोगों में लाभ
● कुण्डलिनी व ध्यान में सहयोगी।
● मस्तिष्क का विकास कर सभी मानसिक समस्याओं का निवारण करता है।
सावधानियाँ :-
● उच्च रक्तचाप, हृदयरोगी, मिर्गी, चक्कर आना एवं मस्तिष्क विकार से संबंधित रोगी क्रमिकरूप से धैर्य पूर्वक करें।
6. शीतली प्राणायाम (Sheetali Pranayama in Hindi) :
विधि :
इस प्राणायाम से शरीर का तापमान कम किया जा सकता है। इस कारण इसका नाम शीतली प्राणायाम है। सिद्धासन या पद्मासन में बैठ जाइए। दोनों हाथ घुटनों पर रखें। मेरुदण्ड, सिर तथा ग्रीवा एक सीध में रखें। जिला को मुँह से बाहर निकालते हुए इस प्रकार मोड़िए कि वह नलिका (नालीनुमा) के समान प्रतीत हो। इसी स्थिति में पूरक करें। धीरे-धीरे श्वास लेते हुए फेफड़ों को भरें।
अंतःकुंभक कीजिए, जिव्हा को वापस अंदर करिए व मुख बंद रखें। सिर को नीचे झुकायें और जालंधर बंध करें। मूलबंध के बिना या मूलबंध के साथ पाँच से सात सेकण्ड तक कुंभक करें। बंध हटाएँ और रेचक करें। यह एक चक्र पूरा हुआ पाँच से दस मिनिट तक दोहराएँ। (रेचक क्रिया नासिका से ही करें)
लाभ :
● यह प्राणायाम मन को प्रसन्न करता है तथा पित्त दोष हरता है।
● यकृत और प्लीहा को सक्रिय बनाता है।
● प्यास बुझाता है।
● उच्च रक्त चाप को कम करता है।
● रक्त शुद्धि करता है।
सावधानियाँ :-
● निम्न रक्तचाप, पुरानी कब्ज़ एवं अधिक कफ के रोगी इसे न करें।
7. भस्त्रिका प्राणायाम (Bhastrika Pranayama in Hindi) :
भस्त्रिका लोहकाराणां यथाक्रमेण सम्भ्रमेत् । तथा वायुं च नासाभ्यामुभाभ्यां चालयेच्छनैः ।।
एवं विंशतिवारं च कृत्वा कुर्याच्च कुम्भकम्। तदन्ते चालयेद्वायुं पूर्वोक्तं च यथाविधि ।।
त्रिवारं साधयेदेनं भस्त्रिकाकुम्भकं सुधीः । न च रोगो न च क्लेश आरोग्यं च दिने दिने।। (घे.स. 5/76-78)
नोट: भस्त्रिका का अर्थ धौंकनी होता है। इस प्राणायाम में श्वास-प्रश्वास की गति तीव्र बलशाली और सशक्त होती है। श्वास-प्रश्वास में एक प्रकार की ध्वनि निकलती है जिसकी हम लोहार की धौंकनी के स्वर से तुलना कर सकते हैं। में
अर्थ: जैसे लोहार धोंकनी द्वारा वायु भरता है उसी प्रकार नासिका द्वारा वायु को उदर में भर शनैः शनैः पेट में चलाएँ। इस तरह बीस बार करके कुंभक द्वारा वायु धारण करें फिर लोहार की धोंकनी से जैसे वायु निकलती है वैसी ही नासिका द्वार से वायु निकालें यह भस्त्रिका कुंभक कहलाता है। इस प्रकार तीन बार नियम से करें। इससे किसी प्रकार के रोग नहीं होते और क्रमशः आरोग्य की वृद्धि होती है।
प्रथम विधि : पद्मासन में बैठिए। दाहिने नासिका द्वार को बंद कर बाएँ नासिका द्वार से तेज़ गति से पूरक करिए तथा वैसे ही रेचक करिए। यही क्रम लगभग बीस बार करिए। अब यही क्रिया दाहिने नासिका द्वार से करें। इस अभ्यास में रेचक-पूरक एक लय में हो। उदर-प्रदेश का फैलना और पिचकाना सुचारु और सम हो। यह एक चक्र कहलाया। इस प्रकार तीन चक्र पूरे करें। 1 तत्पश्चात् जालंधर बंध एवं मूलबंध का प्रयोग करें।
द्वितीय विधि : प्राणायाम के लिए सुखासन में बैठिए। इस विधि में दोनों नासिका द्वार से गहरी व पूरी शक्ति के साथ श्वास लेना एवं बाहर भी पूरी शक्ति के साथ श्वास छोड़ना है। यह क्रिया बीस बार करें। तत्पश्चात् अंत-कुंभक करके जालंधर और मूलबंध (सुविधानुसार) का अभ्यास कीजिए। यह एक चक्र हुआ। इस प्रकार इस विधि को तीन बार करें।
विशेष:
● स्वास्थ्य के अनुसार श्वास गति मंद, मध्यम व तीव्र गति से करें।
● श्वास अंदर लेते समय अच्छा चिंतन करें एवं छोड़ते समय शरीर और मन के विकार निकल रहे हैं ऐसा विचार करें।
● कुण्डलिनी जागरण के साधक भस्त्रिका प्राणायाम को वज्रासन में बैठ कर करते हैं।
8. केवली प्राणायाम (Kevali Pranayama in Hindi) :
घेरण्ड संहितानुसार : महर्षि घेरण्ड के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा जब श्वास बाहर छोड़ता है तब ‘हं’ वर्ण एवं जब श्वास अंदर ग्रहण करता है तब ‘सः’ (सो) वर्ण का जाप करता है। इस प्रकार चौबीस घंटे में 21,600 बार प्रत्येक जीव श्वास लेता है। ‘हं’ वर्ण शिवानन्द और ‘सः’ वर्ण शक्ति रूप हैं जिसको ‘अजपा नाम गायत्री’ कहते हैं और इसी हंसः को एवं विलोम से सोह को सब जीव निरंतर जपते रहते हैं।
लिंग और गुदा के बीच (मूलाधार), हृदय कमल और नासिका छिद्रों में वायु का आवागमन होता है। महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि स्थूल शरीर छियानवे (96) अंगुल परिमाण का है और देह से स्वाभाविक बाहर जाने वाली वायु की गति द्वादश (12) अंगुल होती है और गायन में सोलह अंगुल, भोजन में बीस अंगुल, मार्ग चलने में चौबीस अंगुल, नींद में तीस अंगुल, रतिक्रिया में छत्तीस अंगुल एवं अन्य परिश्रम में इससे भी अधिक होती है। (अलग-अलग आचार्यों ने अंगुल प्रमाण अपने-अपने मतानुसार बताया है।)
स्वाभाविक प्राण की गति से इनकी गति न्यून होती जाए तो परमायु (आयु वृद्धि) हो और बारह अंगुल से अधिक हो तो आयु घट जाती है, ऐसा योगीजन कहते हैं। जब तक प्राणवायु की स्थिति है तब तक मृत्यु नहीं होती। कुंभक के अभ्यास में यह प्राणवायु मुख्य है। शरीर के स्थिर रहने तक केवली कुम (प्राणायाम) करके अजपाजप को जपता रहे। केवली प्राणायाम करने से आयु में वृद्धि होती है अर्थात् इक्कीस हज़ार छः सौ बार जप पूर्ण होने से गति घट जाती है और मन प्रसन्नता से भर जाता है।
नासिका द्वारों से वायु को खींचकर केवल कुंभक । पहले दिन चौसठ बार तक श्वास-प्रश्वास को धारण करें। केवली कुंभक का अभ्यास प्रतिदिन आठ प्रहर में आठ बार करना चाहिए (अर्थात् 8×8= 64 ) प्रातःकाल, मध्याहव सायंकाल तीनों समय, समान संख्या में अभ्यास करें। इस प्रकार केवली कुंभक की सिद्धि होने तक अजपाजप गायत्री के साथ प्रमाण से पाँच-पाँच बार वृद्धि करता जाए।
हठयोगानुसार: स्वस्तिक आसन में बैठ जाएँ। श्वासोच्छवास किए बिना ही (रेचक पूरक किए बिना ही) प्राण को (वायु को) जहाँ का तहाँ ही स्तब्ध कर देना ‘केवली-कुंभक प्राणायाम’ होता है।
रेचकं पूरकं त्यक्त्वा सुखं यद् वायुधारणम् ।
प्राणायामोऽयमित्युक्तः स वै केवल-कुम्भकः ।।
आचार्यों ने स्तम्भवृत्ति प्राणायाम ओर केवली-कुंभक को एक ही माना है।
कुम्भके केवले सिद्धे रेचक पूरकवर्जिते ।
न तस्य दुर्लभं किंचित त्रिषु लोकेषु विद्यते।।
रेचक पुरक को रोककर केवल कुंभक के सिद्ध हो जाने पर कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता सब कुछ सुलभ हो जाता है। योगी जन कहते हैं कि ‘सहित कुंभक जिसमें रेचक-पूरक (श्वास-प्रश्वास) के साथ कुमक किया जाता है, के सिद्ध हो जाने पर “केवली-कुंभक” में शीघ्र सफलता मिलती है।
लाभ :-
● हठयोग प्रदीपिका में लिखा है कि तीनों लोक में ऐसी कोई वस्तु नही है जो केवली कुंभक के सिद्ध हो जाने के बाद साधक को प्राप्त न हो।
● अपनी इच्छा के अनुसार प्राणवायु के धारण से राजयोग पद तक प्राप्त हो जाता है।
● दिव्य-दृष्टि प्राप्त हो जाती है।
● ध्यान में दृढ़ता प्रदान करता है।